ऐसी हैवानियत पर चुप्पी, दिल से निकल गई दिल्ली
राजनारायण सिंह की कलम से ✍️
सभ्य और शिक्षित, सुविधाओं से सुसज्जित, हाई सोसायटी वाली दिल्ली, सच मानिए दिल्ली दिल को गहरा दर्द दे गई। दिल्ली नाम सुनते ही राष्ट्रीय राजधानी जेहन में आ जाती है। केंद्रीय मंत्रियों से लेकर अफसरशाही भी दिमाग में छा जाता है, तमाम देशों के राजदूतों के ऑफिस जो दुनिया को समेटे हुए हैं। ये दिल्ली लाखों के रोजगार की आस है, तमाम लोगों की जिंदगी की प्यास है, पर ऐसी हैवानियत पर चुप्पी, सच दिल्ली दिल से निकल गई। साहिल ने जिस प्रकार से सरेआम साक्षी को चाकुओं से गोदा और पत्थर मार- मारकर मार डाला, मगर कोई उसे बचाने तक नहीं आया। किसी के चेहरे पर शिकन, बेचैनी और दर्द भरी हरकत की एक झलक तक नहीं दिखी। इससे कैसे कह सकते हैं कि दिल्ली दिलवालों की है? 24 घंटे दिल्ली दौड़ती है? यहां तो सरेआम संवेदनाओं का कत्ल होता है। साहिल के जाहिल को देश ही नहीं दुनिया ने देखा। किस प्रकार से वह साक्षी को दिल्ली में ही मौत के घाट उतार रहा था। क्योंकि सोशल मीडिया के इस युग में देश से विदेश तक खबरों के पहुंचने में देरी नहीं लगती। साहिल की भी ये हरकत पल भर में सारी दुनिया तक आम हो चुकी थी। सोशल मीडिया संवेदनाओं से भर उठा था। मगर, हर कोई दिल्ली वालों को धिक्कार रहा था। भले ही साहिल ने साक्षी को मारते समय बचाव के लिए आने वालों को भी धमकी दी हो, मगर क्या इंसान इतना नामुराद हो गया है कि अपनी आंखों के सामने हैवानियत होते दे सकता है? सोशल मीडिया के माध्यम से जो विडियो सामने आया है, उसमें किसी व्यक्ति में कोई बेचैनी दिखती नजर नहीं आ रही है। इतना दर्दनाक दृश्य देखकर किसी की भी रूह कांप उठती मगर ऐसा आने जाने वाले लोगों में तनिक दिखा भी नहीं। बल्कि उनकी आवाजाही आम दिनों की ही तरह थी।
बड़े शहरों में अपनों में सिमट रही जिंदगी
बड़े शहरों का नाम बड़े गर्व से लिए जाते हैं। दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु, पुणे, अहमदाबाद, सूरत, हैदराबाद, भोपाल, इंदौर, लखनऊ आदि शहरों में रहने वाले लोग अपने नाते, रिश्तेदारों को बड़े गर्व से बताते हैं कि वो इन बड़े शहरों में रहते हैं। नौकरी और रोजगार के लिए भी लोग इन शहरों की ओर भागते हैं। मगर, बड़े शहरों में बहुत तेजी से जिंदगी सिमट रही है। लोग, अपनों तक सीमित रहना चाहते हैं। किसी के दुख दर्द से उनका कोई सरोकार नहीं होता है। कुछ की तो भागदौड़ भरी जिंदगी में मजबूरियां हैं, मगर अधिकांश तो सिर्फ अपने में मस्त रहना चाहते हैं। जिन शहरों के लोगों को शिक्षित और सभ्य माना जाता है, वहां लोग मानवता को ताक पर रखकर घर से निकलते हैं। यह रोग अपने देश में तेजी से बढ़ता जा रहा है। जिसकी गिरफ्त में लोग आते जा रहे हैं।
असल जिंदगी में आइए, वरना आप भी होंगे गिरफ्त में
असल, जिंदगी में आने की जरूरत है। हाई सोसायटी और दिखावे के चक्कर में लोग एक दूसरे से बोलना तक नहीं चाहते हैं। अपार्टमेंट कल्चर तो और भी खतरनाक साबित हो रहा है। इसमें एक दूसरों से लोगों की महीनों मुलाकात तक नहीं होती है। यदि ऐसा ही रहा तो हर चौराहे पर साक्षी का कत्ल होगा और लोग तामशबीन बने रहेंगे। यह मत सोचिए की ये सिर्फ साक्षी के साथ हुआ है, इसकी गिरफ्त में आप भी आ सकते हैं। भले ही आपका कत्ल न हो, भगवान करे ऐसा कभी होना भी नहीं चाहिए, मगर आने वाले दिनों में रोजगार की समस्या, टूटते परिवार, भागदौड़ भरी जिंदगी आदि के चलते कहीं न कहीं आप भी शिकार हो सकते हैं, फिर सोचिए आपको कौन बचाने आएगा। क्योंकि आपने साक्षी को नहीं बचाया।